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वीडियो जानकारी: हार्दिक उल्लास शिविर, 19.01.2020, वाराणसी, उत्तर प्रदेश, भारत
प्रसंग:
न त्वं देहो न ते देहो भोक्ताकर्ता न वा भवान्।
चिद्रूपोऽसि सदा साक्षी निरपेक्षः सुखं चर॥
न तुम शरीर हो और न यह शरीर तुम्हारा है, न ही तुम भोगने वाले अथवा करने वाले हो,
तुम चैतन्य रूप हो, शाश्वत साक्षी हो, इच्छा रहित हो, अतः सुखपूर्वक रहो॥
~अष्टावक्र गीता (अध्याय १५, श्लोक ४)
रागद्वेषौ मनोधर्मौ न मनस्ते कदाचन।
निर्विकल्पोऽसि बोधात्मा निर्विकारः सुखं चर॥
राग और द्वेष मन के धर्म हैं और तुम किसी भी प्रकार से मन नहीं हो, तुम कामनारहित हो,
ज्ञान स्वरुप हो, विकार रहित हो, अतः सुखपूर्वक रहो॥
~अष्टावक्र गीता (अध्याय १५, श्लोक ५ )
~ आनंद का सुपात्र कौन और कैसे बने?
~ अष्टावक्र गीता का उद्देश्य क्या हैं?
~ अपने भीतर निरंतर पात्रता कैसे विकसित करें?
~ क्या शांति के रास्ते में क्या शरीर और मन बाधा बनते हैं?
~ लगातार शांति कैसे बनी रहे?
संगीत: मिलिंद दाते
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