(गीता-28) मैं इतनी गिर गयी हूँ कि कभी न सँभलूँगी न उठूँगी? || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2023)

2024-10-19 0

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वीडियो जानकारी: 08.10.23, गीता समागम, ग्रेटर नॉएडा

प्रसंग:
~ जीवन में ऐसा बिंदू कब आता है जिसके बाद उठ नहीं सकते ?
~ हम जीव कहलाने के अधिकारी है या नहीं है ये किससे निर्धारित होगा ?
~ चेतना की ऊँचाई किससे निर्धारित होती है ?
~ चेतना की ऊँचाई कैसे जाँच सकते है ?
~ जीवित होने का पैमाना क्या है ?
~ किसे जीवित कहलाने का हक नही है ?

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः।।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 3, श्लोक 32

अहंकार में अंधकार में
अज्ञान में मतिभ्रष्ट हैं
कल उन्हें क्या कष्ट हो
वो आज ही जब नष्ट हैं

~ आचार्य प्रशांत द्वारा सरल काव्यात्मक अर्थ

अर्थ:
जो अज्ञान से बँधकर, अँधेरे से बँधकर, जहाँ कोई रोशनी नहीं है (‘असूया’), मेरी बात नहीं मानते, उनको नष्ट ही समझ लेना; भविष्य में नहीं नष्ट होंगे, वो वर्तमान में ही नष्ट हैं। उनका आगे नहीं कुछ बुरा होगा, वो हैं ही नहीं कि उनका आगे कुछ बुरा हो; वो नष्ट हो चुके हैं।

संगीत: मिलिंद दाते
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