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वीडियो जानकारी:
शब्दयोग सत्संग, 30.03.20, अद्वैत बोध शिविर, ग्रेटर नॉएडा, उत्तर प्रदेश, भारत
प्रसंग:
~पिंगलागीता (श्लोक १८, १९, २०, २१)
तृष्णार्तिप्रभवं दुःखं दुःखार्तिप्रभवं सुखम्।
सुखात् संजायते दुःखं दुःखमेव पुनः पुनः॥ १८॥
भावार्थ: संसार में विषयों की तृष्णा से जो व्याकुलता होती है, उसी का नाम दुःख है और उस दुःख का विनाश ही सुख है। उस सुख के बाद (पुनः कामनाजनित) दुःख होता है। इस प्रकार बारम्बार दुःख ही होता रहता है।
सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम्।
सुखदुःखे मनुष्याणां चक्रवत् परिवर्ततः॥१९॥
सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख आता है। मनुष्यों के सुख और दुःख चक्र की भाँति घूमते रहते हैं।
सुखात्त्वं दुःखमापन्नः पुनरापत्स्यसे सुखम्।
न नित्यं लभते दुःखं न नित्यं लभते सुखम्॥ २०॥
इस समय तुम सुख से दुःख में आ पड़े हो। अब फिर तुम्हें सुख की प्राप्ति होगी। यहाँ किसी भी प्राणी को न तो सदा सुख ही प्राप्त होता है और न सदा दुःख ही।
शरीरमेवायतनं सुखस्यदुःखस्य चाप्यायतनं शरीरम्।
यद्यच्छरीरेण करोति कर्मतेनैव देही समुपाश्नुते तत्॥ २१॥
यह शरीर ही सुख का आधार है और यही दुःख का भी आधार है। देहाभिमानी पुरुष शरीर से जो–जो कर्म करता है, उसी के अनुसार वह सुख एवं दु:खरूप फल भोगता है।
~ देहाभिमान को नष्ट करने की प्रक्रिया क्या है?
~ देहाभिमान बुरा क्यों है?
~ दुःख का कारण क्या है?
~ आध्यात्मिक व्यक्ति का दुनिया के साथ कैसा रिश्ता होना चाहिए?
~ विषयों में तृष्णा की व्याकुलता ही दुख का कारण कैसे है?
संगीत: मिलिंद दाते
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