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वीडियो जानकारी:
पार से उपहार शिविर, 19.04.20, ग्रेटर नॉएडा, भारत
प्रसंग:
क्वचिद् गृहाश्रमकर्मचोदनातिभरगिरिमारुरु क्षमाणो
लोकव्यसनकर्षितमना: कण्टकाशर्कराक्षेत्र प्रविशन्निवसीदति॥ १८॥
गृहस्थाश्रम के लिये जिस कर्मविधिका महान् विस्तार किया गया है, उसका अनुष्ठान किसी पर्वतकी कड़ी चढ़ाई के समान ही है। लोगों को उस ओर प्रवृत्त देखकर उनकी देखा-देखी जब यह भी उसे पूरा करने का प्रयत्न करता है, तब तरह-तरह की कठिनाइयों से क्लेशित होकर काँटे और कंकड़ों से भरी भूमि में पहुँचे हुए व्यक्ति के समान दुःखी हो
जाता है॥ १८॥
~ परमहंस गीता (अध्याय ५, श्लोक १८ )
~ हमारे दुःख के कारण क्या है?
~ गृहस्थ जीवन में दुःख क्यों पाते है?
~ हम अपने दुःख को स्वीकार क्यों नहीं करते है?
संगीत: मिलिंद दाते
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