दिन ब दिन हमारे इस समाज को होता क्या जा रहा है कि ये ज़रा-ज़रा सी बात पर आहत होने को तैयार बैठा रहता है। आहत होने के लिए हमें किसी बड़े कारण की भी ज़रूरत नहीं है, हम किसी कहानी, उपन्यास, गीत या कविता की पंक्तियों से आहत होकर उन्हें जला सकते हैं। किसी मूर्ति या पेंटिंग से आहत होकर उनका अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व होने के बावजूद उन्हें नष्ट कर सकते हैं। किसी फिल्म या वेबसीरिज़ के दृश्यों से या किसी संवाद से आहत होकर हम सिर कलम करने या नाक काटने की धमकियां दे सकते हैं। किसी मज़ाक, व्यंग्य या स्टैंडअप कॉमेडी में बात के लक्ष्य या सार को समझे बिना किसी को जेल की सलाखों के पीछे धकेल सकते हैं। किसी विज्ञापन में दिए संदेश को जानना ज़रूरी न समझ कर हम उसे बैन करने के नारे लगा सकते हैं, बल्कि अभी हाल-फिलहाल में रीलिज़ हुई कुछ वेबसीरिज़, जैसेकि तांडव, अ सूटेबल ब्वॉय, पाताललोक, आश्रम वगैरह पर उठे विवाद को भी इसमें जोड़ लिया जाए तो लगता है कि कलाएं, जिन्हें अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा उदाहरण माना जाता है, उनकी किसी भी बात को आधार बनाकर विवाद खड़ा कर देना सबसे आसान हैं। संवेदनशील होना अच्छी बात है। भावनाओं के आहत होने पर विरोधी स्वर तेज़ करना भी अच्छी बात है, पर ये विरोध क्या अपना स्वार्थ, सुविधा और समय देखकर ही तय किया जाता रहेगा।