मथुरा. वंृदावन और मथुरा की हर गली में भगवान बिराजते हैं। हर रोज यहां भक्तों का मेला उमड़ता है। बांके बिहारी की जय-जयकार,भजन-कीर्तन से मनमुग्ध हो जाता है। लेकिन भजनाश्रमों में भजन करने वाली महिलाओं में तमाम ऐसी होती हैं जिनकी सफेद लिबास के पीछे दुखों का स्याह पक्ष छिपा होता है। भजन कीर्तन करने वाली इन महिलाओं को बदले में मिलते हैं चंद रुपए और पेट भरने के लिए भोजन। लेकिन इसके लिए भी उन्हें पुजारियों के हाथ-पैर जोडऩे पड़ते हैं ताकि प्रभु का स्मरण करने के लिए उनका नंबर लगता रहे। भजन कीर्तन करने वाली इन महिलाओं में 90 फीसद विधवाएं हैं जो देश के विभिन्न हिस्सों से आकर यहां अपना गुजर बसर कर रही हैं। मथुरा-वृंदावन में रह रही विधवाओं के दो वर्ग हैं। एक वह जो यहां के विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी महिला आश्रय सदनों में रह रही हैं दूसरी वह जो निराश्रित जीवन जी रही हैं और मंदिरों, गलियों में फुटपाथ पर अपना जीवन गुजार रही हैं। सदनों में रहने वाली विधवाओं की हालत काफी ठीक है। उनके पास अंत्योदय कार्ड है, मेडिकल कार्ड और राशन कार्ड है। इन्हें विधवा पेंशन भी मिल रही है लेकिन निराश्रित विधवाएं उपेक्षित और यातना का जीवन जी रही हैं। पत्रिका संवाददाता ने विधवाओं के इन दोनों ही वर्गों से बातचीत की तो एक की दुनिया एकदम स्याह तो दूसरी की कुछ उजली दिखी। पेश है एक रिपोर्ट-
बेटे की ख़ुशियों की खातिर छोड़ दिया घर-बार
वृन्दावन के चैतन्य विहार स्थित महिला आश्रय सदन में सैकड़ों विधवाओं को आश्रय मिला है। यहां रह रहीं रामबेटी बताती हैं मुझे नहीं पता औलाद का सुख क्या होता। पाल पोसकर बेटे को बड़ा किया। शादी-ब्याह किया। लेकिन, आते ही बहू ने लड़ाई-झगड़ा शुरू कर दिया। स्थिति यहां तक पहुंच गयी कि वह आए मरने की धमकियां देने लगी। बेटे की खुशी की खातिर मैंने घर छोड़ दिया। 6 साल से यहां रह रही हूं। सरकारी योजनाओं के सहारे जीवन कट रहा है। बेटे की याद आती है तो कभी-कभार फोन पर बात कर लेती हूं। खुशी है मेरे घर छोडऩे के बाद बेटा-बहू सुख पूर्वक जीवन जी रहे हैं।
अपनों ने छोड़ा तो राधा-रानी ने अपनाया
जगन्नाथ पुरी, ओडिशा की अनुपमा मुखर्जी और झारखंड की रहने वाली देवंती देवी 8 साल पहले सदन में रहने आयीं। अनुपमा मुखर्जी कहती हैं पति का स्वर्गवास होने के बाद वर्ष 2012 में यहां आयीं। अकेले बेटी थी। बेटी का ब्याह किया। लेकिन, शादी के बाद दामाद-बेटी अलग रहने लगीं। फिर मथुरा आ गयी। आश्रम में सब सुख-सुविधाएं मिल रही हैं। अनुपमा कहती हैं, घर में जो सम्मान नहीं मिला वह सहारा राधा रानी ने दिया। देवंती देवी ने अपनी व्यथा सुनाते हुए बताया, पति की साइकिल की दुकान थी। आग लगने से जलकर खाक हो गई। मेरे पति सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाए और चल बसे। उनके निधन के बाद घर वालों ने संपत्ति हड़प ली। कोई सहारा न मिलने पर चार भाई और तीन बहनों को छोड़कर वृंदावन आ गयी। आश्रय सदन ने सहारा दिया। देवंती कहती हैं कि हमें 1850 रुपए प्रसाद के रूप में सूट और पॉकेट मनी के लिए मिलते हैं। 500 रुपए विधवा पेंशन के सरकार देती है। आसानी से गुजर बसर हो जाता है।