वाराणसी. बनारस तेज़ी से बदल रहा है। 10 से 15 साल पहले जैसे शहर था, अब वैसा नहीं है। बदहाल सड़कों से लेकर जर्जर इमारतों तक की तक़दीर बदल रही है। घाटों और गलियों की सीढिय़ा बदल गयीं। इधर,उधर सड़कों पर बैठे साड़ भी अब कम दिखते। पर एक चीज़ नहीं बदली, वह है काशी की विधवाओं की किस्मत। बनारस पहुंची यह विधवाएं ज्यादातर मोक्ष की आड़ में यहां लाकर छोड़ी गयी हैं तो कुछ हालत की मजबूर हैं, जिनके बेटे-बेटियों ने बुढ़ापे में हाथ पसारने को मजबूर किया है। हर रोज बनारस के घाटों पर उम्र के बोझ से झुकी गंगा को निहारती सैकड़ों विधवाएं जहां-तहां दिखती हैं। काशी में मोक्ष का इंतज़ार करती कमज़ोर काया वाली इन विधवाओं की दर्दभरी कहानी है। तमाम अन्य रस्मी दिवसों की तरह 2011 से विधवाओं के लिए भी 23 जून का दिन तय कर दिया गया है। जिसे समाज विधवा दिवस के रूप में मनाता है।
35000 से अधिक विधवाएं
बनारस की ज़्यादातर विधवाओं की एक ही कहानी है। कभी उनका बीघे भर का आंगन हुआ करता था। लेकिन बुढ़ापे में बड़े से घर में इनके लिए एक छोटा सा कोना भी नहीं बचा इसलिए वे यहां पहुंचा दी गयीं। कुछ को मोक्ष का लालच है तो कुछ को अपनों से ढेर सारी शिकायत। मांग कर खाना और दूसरों के रहम ओ करम पर पलना ही अब उनकी नियति है। 2011 की रिपोर्ट की मानें तो बनारस में 35000 से ज़्यादा विधवाएं हैं। यहां के राजकीय वृद्धाश्रम दुर्गाकुंड, भगतुआ वृद्धाश्रम, राज्य महिला कल्याण निगम के वृद्धाश्रम, मदर टेरेसा आश्रम शिवाला, नेपाली आश्रम ललिता घाट, बिरला आश्रम, लालमुनि आश्रम नई सड़क, मुमुक्षु भवन, अपना घर, आशा भवन, मां सर्वेश्वरी वृद्धाश्रम, रामकृष्ण मिशन आदि में सैकड़ों विधवाएं रह रही हैं। कोई अपनों की सताई तो कहीं गैरों के हाथों सबकुछ लुटाकर ये यहां पहुंची हैं।
दर्द भरी है हर विधवा की कहानी
रायबरेली की की सोमवती गिरी गोस्वामी की शादी 11 साल की उम्र में हो गयी। 15 साल में गवना हुआ। पति अफीमची था। सबकुछ बेच खाया। देहरादून जाकर मर खफ गए। पिताजी बनारस के समाधि मठ में रहते थे, उन्होंने ही बनारस पहुंचा दिया। सोमवती रोते हुए कहती हैं अपनी किस्मत ही ऐसी थी तो दोष किसे दें। चौकाघाट की एक विधवा रुंधे गले से कहती हैं कि 'मेरा कोई नहीं है। पति ने बहुत ही पहले छोड़ दिया था। मां सहारा बनीं। मां के गुजरने के बाद पड़ोसी ने घर पर कब्जा कर लिया। अंत