कहते हैं कि मजदूर अपने हाथों से देश की तकदीर लिखते हैं. देश की तरक्की और उसके उत्थान में मजदूर अहम भूमिका निभाते हैं. मगर इन दिनों मजदूर वर्ग पर मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा है .देश में कोरोना संक्रमण फैलने के बाद लगाए गए लॉक डाउन के बाद से ही मजदूरों की जिंदगी अस्त-व्यस्त हो गई है. उद्योग धंधे और विभिन्न संस्थान बंद होने से पहले तो मजदूर बेरोजगार हुए. फिर इनके नियोक्ताओं द्वारा लॉक डाउन के दौरान इनके खाने-पीने और रहने की व्यवस्था नहीं करने पर ये लोग अपने गृह राज्य से दूर दूसरे राज्यों में भूखे प्यासे फंसे रहे. अंत में कोई चारा न देख कर बहुत से मजदूर पैदल ही अपने राज्यों की ओर प्रस्थान करने लगे .मगर भूखे प्यासे हजारों किलोमीटर पैदल चलने से कई मजदूरों की रास्ते में ही मौत हो गई. यह मुद्दा लगातार उठा कि दूसरे राज्यों में फंसे हुए श्रमिकों को उनके गृह राज्य तक भेजने के लिए केंद्र सरकार को और राज्य सरकारों को कोई व्यवस्था करनी चाहिए, मगर सरकार की तरफ से यह निर्णय लेने में बहुत देर हो गई .अंत में जब मजदूरों के लिए स्पेशल ट्रेन और बसें चलाई गईं तो उनके जाने का किराया भी मुद्दा बन गया. केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच आरोप-प्रत्यारोप होने लगे. विपक्ष ने भी मजदूरों से किराया वसूलने का मुद्दा उठाया . हालांकि केंद्र में सत्ताधारी भाजपा की ओर से कहा गया कि मजदूरों से किराया नहीं वसूला गया. इस मामले में अंत तक संशय की स्थिति बनी रही. लेकिन मजदूरों पर मुसीबतों का सिलसिला यहीं नहीं थमा. आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम में एक फैक्टरी से जहरीली गैस का रिसाव होने से कई मजदूर मारे गए या गंभीर रूप से बीमार हो गए .अभी इस हादसे की खबर ठंडी भी नहीं पड़ी थी कि महाराष्ट्र के औरंगाबाद में पैदल अपने राज्य की ओर जा रहे मजदूर एक मालगाड़ी की चपेट में आकर अपनी जान से हाथ धो बैठे. प्रश्न यह उठता है कि राज्य सरकारों और केंद्र सरकार की क्या इन लोगों के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? क्या इन लोगों की जान की कोई कीमत नहीं ? इसी मुद्दे को कार्टून के माध्यम से उठाया है कार्टूनिस्ट सुधाकर सोनी ने