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शब्दयोग सत्संग
२१ मार्च २०१५
अद्वैत बोधस्थल, नॉएडा
मुण्डकोपनिषद् (१.२.२३.)
नायांत्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुँस्वाम्॥
क्या जीवन खोज में बीत रहा है?
क्या जीवन सूनेपन से भरा है?
मन लगातार भ्रमित क्यों है? परमात्मा को कैसे पायें?