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शब्दयोग सत्संग
२१ अप्रैल, २०१७
अद्वैत बोधस्थल, नॉएडा
अष्टावक्र गीता, अध्याय १८ से,
नाप्नोति कर्मणा मोक्षं विमूढोऽभ्यासरूपिणा ।
धन्यो विज्ञानमात्रेण मुक्तस्तिष्ठत्यविक्रियः ॥३६॥
अज्ञानी मनुष्य कर्मरूप अभ्यास के द्वारा, मुक्ति नहीं पा सकता, और ज्ञानी कर्मरहित होने पर भी केवल ज्ञान से मुक्ति पा लेता है।
निराधारा ग्रहव्यग्रा मूढाः संसारपोषकाः ।
एतस्यानर्थमूलस्य मूलच्छेदः कृतो बुधैः ॥३८॥
अज्ञानी निराधार आग्रहों में पड़कर संसार का पोषण करते रहते है, ज्ञानियों ने समस्त अनर्थों की जड़- संसार सत्ता का ही सर्वथा उच्छेद कर दिया है।
न शान्तिं लभते मूढो यतः शमितुमिच्छति ।
धीरस्तत्त्वं विनिश्चित्य सर्वदा शान्तमानसः ॥३९॥
अज्ञानी को शान्ति नहीं मिल सकती क्योंकि वह शांत होने की इच्छा से युक्त है। ज्ञानी पुरुष तत्व का दृढ़ निश्चय कर के सर्वदा शांत चित्त ही रहता है।
क्वात्मनो दर्शनं तस्य यद् दृष्टमवलंबते ।
धीरास्तं तं न पश्यन्ति पश्यन्त्यात्मानमव्ययम् ॥४०॥
अज्ञानी को आत्मसाक्षात्कार कैसे हो सकता है, जब की वह दृश्य पदार्थों का आलंबन स्वीकार करता है। ज्ञानी पुरुष वे हैं, जो उन दृश्य पदार्थों को देखते ही नहीं, और अपने अविनाशी स्वरुप को ही देखते हैं।
प्रसंग:
अज्ञानी कौन?
अज्ञानी को आत्मसाक्षात्कार कैसे हो सकता है
ज्ञानी और अज्ञानी में क्या भेद है?
अष्टावक्र ज्ञानी किसे कहते है?
अज्ञानी को शान्ति क्यों नहीं मिल सकती है?
ब्रह्म में कैसे स्थापित करें?
संसार का पोषण करने से क्या अर्थ है?
संगीत: मिलिंद दाते