मैं सीता। भूमि की पुत्री। राजा जनक की राजदुलारी। मैं अकाल से ग्रस्त मिथिला में हल चलाते हुए पिता जनक को खेतों की भूमि से मिली। हल के उस सिरे को सीता भी कहते हैं जो भूमि में समाकर उसे खोदता है। हल के उस सिरे के जरिए पिता ने मुझे पाया, इस कारण मेरा नाम सीता रखा गया।
बहन मांडवी, उर्मिला और श्रुतकीर्ति के साथ खेलते हुए बचपन गुजरा। आज पार्वती पूजन के लिए शिवालय के देवी मंदिर में सखियों के साथ आई, मंदिर के पास पुष्प वाटिका में दो दिव्य राजकुमारों के आने का समाचार है। सखियों से सुना है कि दोनों सुकुमारों के मुख पर बड़ा तेज है, दोनों देव पुरुषों की भांति दिखते हैं। कोई सखी बता रही थी कि ये चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण हैं। दो दिन बाद जो स्वयंवर और धनुर्यज्ञ है, उसे देखने आए हैं। राजर्षि विश्वामित्र के साथ। वो विश्वामित्र जिनके नगर की सीमा में आने का समाचार पाकर पिता जनक खुद पूरे कुल को लेकर उनके स्वागत में पहुंचे थे।
स्वयंवर का दिन भी आ गया। बीच सभा में रखा गया शिव धनुष उठाने के लिए पूरे आर्यावर्त से राजाओं का आना हुआ है। गुरु विश्वामित्र के साथ दोनों सुकुमारों के साथ विराजे हुए हैं। वे हर एक के लिए आकर्षण का केंद्र हैं। हर कोई अपने पराक्रम का प्रदर्शन करने के लिए आतुर है। लेकिन, आश्चर्य है कि जिस शिवधनुष को मैंने स्वयं कई बार क्रीड़ावश ही उठा लिया था, उसे कोई हिला भी नहीं पा रहा है। एक के बाद एक राजा आ रहे थे, पराजित भाव से लौट रहे थे। पिता की चिंता बढ़ रही थी। प्रत्यंचा चढ़ाना तो दूर किसी से उसे उठाया भी नहीं जा रहा था। सभा में बैठे सभी राजाओं ने हार मान ली। पिता दुःखी हुए। उन्हें भय था कि संभवतः मेरा विवाह हो ही नहीं।
पिता ने राज समाज को कई उलाहनें भी दिए। तभी गुरु विश्वामित्र ने दोनों राजकुमारों में से ज्येष्ठ कुमार राम को धनुष उठाने की आज्ञा दी, शेष राजाओं ने उसे हास्य-विनोद माना क्योंकि भयंकर शिव धनुष के आगे कुमार राम लघु दिख रहे थे। उन्होंने गुरु के चरणस्पर्श किए, पिता जनक की ओर देखकर उनसे संकेतों में आज्ञा मांगी। फिर शिव धनुष को प्रणाम किया, परिक्रमा की। मेरे मन के किसी कोने में प्रार्थना चल रही थी, कि आशुतोष शिव इस धनुष का भार हटा लें। कुमार राम ने एक हाथ धनुष पर रखा और पलक झपकते ही उसे इस तरह उठा लिया जैसे कोई क्रीड़ा का साधन हो। धनुष का एक सिरा भूमि पर रख दूसरे को अपने कानों तक इस तरह खींचा की भयंकर स्वर के साथ धनुष प्रत्यंचा चढ़ाने के पहले ही टूट गया।
सभा में हाहाकार मच गया। गुरु विश्वामित्र आनंद से भर गए। पिता के चेहरे पर संतोष के भाव थे। मैं मंद मुस्कुरा रही थी। कुमार राम ने मुझे जीता है, मेरे हृदय को जीता है। सारे राजा हतप्रभ थे। अवाक थे। कोई राम के जयकारे लगा रहा था, कोई मौन हो चुका था। पिता ने मुझे आदेश दिया, वरमाला कुमार राम के गले में डालने के लिए। मैंने जयमाला पहनाई। कुमार राम अब मेरे स्वामी हैं। मैं मन से प्रसन्न हूं। पिता ने गुरुओं के आदेश से अयोध्या में दूत भेज दिए।
एक पखवाड़े में विवाह सम्पन्न हो गया। ससुर महाराज दशरथ एक पुत्र के लिए बारात लाए थे। शेष तीनों पुत्रों का विवाह भी मेरी बहनों से तय हो गया। कुमार भरत का मांडवी, कुमार लक्ष्मण का उर्मिला और कुमार शत्रुघ्न का श्रुतकीर्ति से। हम बहनें विदा होकर अयोध्या आईं। माताओं से मिली। स्वामी राम ने सबसे पहले माता कैकयी से मिलवाया। माता कैकयी अपने पुत्र भरत से ज्यादा स्नेह मेरे स्वामी के लिए रखती थी। वो उनके प्राणों के समान थे। माता कैकयी ने मुझे अपने सीने से लगा लिया। ससुराल में पहली मां से ही अपनी मां जैसा स्नेह मिला। माता कैकयी का स्नेह अतुलनीय था।