राक्षसों के नाश के लिए दशरथ से राम को मांगकर ले गए विश्वामित्र

2019-10-01 4

मैं राम। मानवीय मर्यादाओं से बंधा देवत्व का अवतार। गुरु वशिष्ठ ने ये नाम दिया है। जिसका अर्थ है जो व्याप्त है, रमन्ते इति रामः। पिता को कुछ विद्वान ब्राह्मणों ने एक और अर्थ बताया है मेरे नाम का। जिसमें मन रम जाए, वो राम है। पिता को मेरे नाम का ये अर्थ बहुत प्रिय है। संभव है, उनका मन मेरे आसपास ही रमता रहता है, सो उन्हें मेरे नाम का ये अर्थ ज्यादा प्रिय हो। 



 



 भाई भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के साथ राजमहल के गलियारों में खेलते हुए बचपन बीता। अब पिता महाराज दशरथ यज्ञोपवित कराकर हमें शिक्षा के लिए गुरुकुल भेज रहे हैं। शिक्षा आरंभ हो गई। रोज कुछ नया जानने को मिला। वेद, वेदांग, नीति, न्याय और धर्नुशास्त्र के साथ युद्ध और राजनीति का ज्ञान गुरु वशिष्ठ से रोज मिल रहा है। भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न तीनों मेरी आज्ञा के अनुचर हैं। कभी मेरा कहा नहीं टालते। लक्ष्मण मेरे साथ तो शत्रुघ्न भरत की सेवा में निरंतर रहते हैं। हम चार भाइयों का प्रेम गुरु वशिष्ठ के आश्रम में आकर्षण और चर्चा का केंद्र है। 



 



समय गुजरता गया। वो दिन भी आ गया जब शिक्षा पूरी हुई। आश्रम छोड़ फिर पिता की चरण सेवा में आने का सौभाग्य मिला। पिता ने कुछ राजकीय कार्यों की जिम्मेदारी भी दी। एक दिन माता कौशल्या की सेवा में था कि पिता जी का अनुचर आया। चिंतित था, उसने कहा महाराज ने आपको और भ्राता लक्ष्मण को तत्काल उपस्थित होने की आज्ञा दी है। 



 



मैं लक्ष्मण के साथ तत्काल सभा में पहुंचा। देखा, पिता के चेहरे पर चिंता की लकीरें हैं, माथे पर कुछ पसीने की बूंदें भी हैं। गुरु वशिष्ठ के समीप के सिंहासन पर एक दिव्य मुनी बैठे हैं। उनके चेहरे पर गजब का तेज और आंखों में अद्भुत विश्वास था। पिता ने बताया कि वे राज-ऋषि विश्वामित्र हैं। दंडकारण्य में राक्षसों के बढ़ते उत्पातों को समाप्त करने के लिए पिता से हम दोनों भाइयों को मांगा है। 



 



जीवन मे दूसरे गुरु का आगमन हुआ। विश्वामित्र ने पुत्रवत स्नेह देने के साथ कई दिव्यास्त्रों का ज्ञान दिया।  दंडकारण्य का आखेट शुरू हुआ। गुरु के आश्रम के निकट वन में ताड़का नाम की राक्षसी सामने आ गई। मैंने धनुष पर बाण का संधान किया, लक्ष्मण ने कहा भ्राता ये स्त्री है, मैंने कहा लक्ष्मण बुरे कर्म में हर प्राणी समान दंड का अधिकारी है। दंडकारण्य में राक्षसों के संहार का प्रारंभ राक्षसी के वध से हुआ। फिर गुरु विश्वामित्र के आश्रम में यज्ञ भंग करने आए सैंकड़ों राक्षसों को मारा। ऋषि समाज हमसे गदगद था। 



 



गुरु विश्वामित्र ने कई ऋषियों के आश्रमों में ले गए। गौतम ऋषि के आश्रम में शिला बन चुकी अहिल्या पर अपने पैर रखने का आदेश गुरु ने दिया। वो फिर अपने पहले के रुप में आ गई। अहिल्या अपने पति के पास पुनः लौट गईं, हम मिथिला नगरी की सीमाओं पर आ गए। गुरु विश्वामित्र हमें जिस आश्रम ने ठहरा रहे थे, वहां कुछ संतों ने बताया कि मिथिला के राजा जनक की पुत्री सीता का स्वयंवर है। दिव्य शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने वाले राज पुरुष को सीता अपना वर चुनेगी। 


 



कथाएं सुनीं, ऐसी बातें जो अविश्वसनीय लगें। ऐसा कोई धनुष जो स्वयं भगवान शिव का है, ब्राह्मण श्रेष्ठ परशुराम ने जनक को दिया, जिसे कोई साधारण पुरुष हिला भी नहीं सकता। कैसा होगा वो धनुष। और कैसी होगी वो राजकुमारी सीता जो उस धनुष को सहज ही उठा लेती हैं। जो जनक को भूमि जोतते हुए भूमि से प्राप्त हुई है। मेरे चेहरे पर जिज्ञासाओं के भाव थे, गुरु विश्वामित्र ने मेरा चेहरा देखकर अनायास ही पूछ

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